हिन्दी साहित्य मे प्रगतिवाद

 

बृजेन्द्र पाण्डेय

सहायक प्राध्यापक, मानव संसाधन विकास केन्द्र, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर

 

 

 

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता का प्रभाव साहित्य मे भी आया। हिन्दी साहित्य मे प्रगतिवाद का जन्म कोई आश्चर्यजनक घटना नही है इसके जन्म और विकास के पीछे तत्कालीन परिस्थितियों का बहुत बडा हाॅंथ था। अतः सर्वप्रथम उन कारणों पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा जिनके कारण हिन्दी साहित्य मे प्रगतिवाद आया।

 

प्रगति का सामान्य अर्थ है आगे बढना और वाद का अर्थ है सिद्वांत। इस प्रकार प्रगतिवाद का सामान्य अर्थ है आगे बढने का सिद्वांत। लेकिन प्रगतिवाद मे इस आगे बढने का एक विशेष ढंग है, एक विशेष दिशा है, जो उसे विशिष्ठ परिभाषा देता है। इस अर्थ मे पुराने सिद्वांतो से नये सिद्वांतों की ओर, आदर्श से यथार्थ की ओर, पंूजीवाद से समाजवाद की ओर, परतंत्रता से स्वतंत्रता की ओर, प्राचीन मान्यत्याओं(रूढियों) से नई मान्यात्याओं की ओर बढना ही प्रगतिवाद है।

 

हिन्दी साहित्य मे जिस प्रकार द्विवेदी युग की इतिवृत्तामकता,उपदेशात्मकता और स्थूलता के प्रति विद्रोह से छायावाद का जन्म हुआ, उसी प्रकार छायावाद की सूक्ष्मता, कलात्मकता,व्यक्तिवादिता और समाज विमुखता की प्रतिक्रिया से एक नई काव्यधारा का जन्म हुआ, इस काव्यधारा ने साहित्य को कल्पना लोक से निकाल कर जीवन के वास्तविक धरातल पर खडा करने का प्रयत्न किया। जीवन के प्रति नई सोच साहित्य का आधार बना। मनुष्य का वास्तविकता से परिचय उसकी सोच, उसकी मान्यात्याओं का चित्रण इस साहित्य का विषय बना। यह विषय साहित्य मे प्रगतिवाद के नाम से प्रतिष्ठित हुआ।

 

हिन्दी साहित्य मे प्रगतिवाद विशेष अर्थ मे रूढ हो चुका है। जिसके अनुसार प्रगतिवादी साहित्य को माक्र्सवादी साहित्य भी कहा जाता है। जो विचारधारा राजनीति मे साम्यवाद है, दर्शन के क्षेत्र मे द्वंदात्मक भौतिकवाद है,वही साहित्य मे प्रगतिवाद है। इसी प्रगतिवाद को समाजवादी यथार्थवाद (सोशेलिस्ट रियलिज्म) भी कहा जाता है। प्रगतिवादी कवि ने समाज की पीडा, दुर्बलता, दयनीयता, निरीहता, बेबसी, उत्पीडन, असमानता, पक्षपात और दमन के भयानक तांडव का चित्रण किया, उसकी कुरूपता और अश्लीलता का नही। प्रगतिवादी कवि ने जीवन के ऐसे पक्ष को अपनाया, जिसमे जन-संस्कृति के उत्थान के तत्व निहित थे। प्रगतिवादी कावय की संज्ञा उस कावय को दी गयी जो छायावाद के समाप्ति काल मे 1936 . के आसपास से सामाजिक चेतना को लेकर निर्मित होना आरम्भ हुआ।

 

रामेश्वर शर्मा ने प्रगतिवाद के विषय मे कहा है- प्रगतिवाद कोई वाद नहीं, वरन एक स्वस्थ दृष्टिकोण है।प्रगतिशील साहित्य जनता की उस महान आशा,आकांक्षा और कर्मेक्षा की अभिव्यंजना है, जो उस देश, समाज, और मनुष्य की आर्थिक, राजनीतिक, एवं बौद्विक दासता से मुक्त होने की प्रेरणा देती है। प्रगतिवादी कवि समाज का यथार्थ चित्रण अपनी लेखनी से करना चाहता है।

 

भगवतीचरण वर्मा ने अपनी भैंसा गाडी कविता मे समाज के पददलित और तिरस्कृत प्राणी का यथार्थ चित्रण अंकित किया हैः

 

चांदी के टुकडों को लेने प्रतिदिन, पिसकर भूखों मर मर।

भैंसा गाडी पर लदा हुआ, जा रहा चला मानव जर्जर।

 

अतः सर्वप्रथम उन कारणों पर दृष्टिपात करना होगा जिन कारणों से हिन्दी साहित्य मे प्रगतिवाद का जन्म अथवा अविर्भाव हुआ है। सन 1857 के विद्रोह के निर्मम दमन के पश्चात देश मे अत्यंत भयावह एवं निराशापूर्ण वातावरण निर्मित हो गया था। भारतीय जनता अंग्रेजों के निर्मम अत्याचारों से डरी सहमी थी। इन कारणों से जनता मे एक नई प्रकार की सोच विकसित हुई, उनमें एक नई तरह की एकता और उर्जा का संचार हुआ। भारतीयों मे राजनीतिक चेतना जगाने के उद्वेश्य से सन 1885 मे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। इसका मुख्य उददेश्य भारतीयों मे स्वतंत्रता हेतु राजनीतिक चेतना जागृत करना था। सम्पूर्ण देश का वातावरण मे एक ओर समाजवादी उत्साह, दूसरी ओर परिस्थितियों की विफलता के कारण कटुता और खिन्नता व्याप्त थी। इन्ही परिस्थितियो मे साहित्य को पूर्व धारा से मोडकर प्रगतिवाद को जन्म दिया था, और प्रगतिवादी साहित्य की रचना प्रारम्भ हुई थी। प्रगतिवादी कवि सुमित्रापंदन पंत ने युगवाणी मे साम्यवाद के विषय मे स्पष्ठ रूप से अपने विचार व्यक्त करते है, और उसे नवीनता का द्योतक मानते है-

 

साम्यवाद के साथ स्वर्ण युग, करता मधुर पदार्पण।

मुक्त लिखित मानवता करती, मानव का अभिवादन।।

 

स्वतंत्रता के पूर्व भारत की सामाजिक परिस्थितियाॅं काफी दयनीय थी। भारत मे लगभग एक हजार वर्षों तक मुस्लिमों का शासन था। उसके पश्चात अेब्रेजों का शासन प्रारम्भ हो गया। अंग्रेजी शासन की स्थापना के पश्चात भी इस स्थिति मे कोई परिवर्तन नही हुआ था। भारतीय समाज अनेक रूढियों, कुप्रथाओं और कुरूतियों से ग्रस्त था। भारतीय समाज अनेक मत मतान्तरों मे विभाजित था। धर्म परिवर्तन का भय उसे मुस्लिम शासनकाल से था, वह अब अंग्रेजी शासनकाल मे और भी विकराल रूप से उपस्थित हो गया था। 

 

राजा राममोहन राय (संस्थापक - ब्रम्ह समाज) जैसे समाज सुधारक भारतीय समाज मे प्रचलित बाल विवाह, सती-प्रथा, जाति प्रथा जैसी कुप्रथा को तोडना चाहते थे किन्तु वे इस कार्य मे शासन की सहायता भी आवश्यक मानते थे। समाज मे विविध मतों के कारण एकता का अभाव था। 1833 मे राजा राममोहन राय की मृत्यु के पश्चात केशव  चन्द्र सेन ने ब्रम्ह समाज का नेतृत्व संभाला। केशव चन्द्र सेन के नेतृत्व मे ब्रम्ह समाज का प्रभाव बंगाल की सीमा को पार कर पंजाब और पश्चिमी महाराष्ट्र तक व्याप्त हो गया। इन्ही के प्रयत्नो से अंग्रेजी शासन ने 1842 मे बाल विवाह रोकने के लिये कानून बनाया तथा विधवा विवाह को भी कानून सम्मत घोषित किया। 1867 मे महाराष्ट्र मे प्रार्थना समाज की स्थापना की गई। इस काल मे सुशुप्त भारतीय समाज को जाग्रति का संदेश देने वाले महापुरूषों मे दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, और स्वामी विवेकानंद जी का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज मे प्रचलित कुप्रथाओं का विरोध किया, उन्होने हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति की पुर्नस्थापना का जो कार्य किया वह भारतीय समाज का क्रांतिकारी अध्याय है। बंगाल मे चितरंजन सेवा सदन और सेवा सदन नामक संस्थाऐं महिला जाग्रति का महत्वपूर्ण कार्य करती रही हैं।सन 1906 मे डिस्प्रेस्ड क्लासेस मिशन इंडियन सोशल कान्फ्रेन्स के द्वारा दलित उत्थान,बाल विवाह, जाति प्रथा, सती प्रथा, आदि की दिशा मे अनेक कार्य हुऐ हैं। महात्मा गाॅंधी द्वारा संचालित स्वतंत्रता अंादोलन केवल राजनीतिक ही नही था, उसमे सामाजिक उत्थान के तत्व भी निहित थे। उनकी देशव्यापी यात्रा के द्वारा देश की सामाजिक स्थिति को काफी प्रभावित किया था। प्रगतिवादी साहित्यकार ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नही मानता। वह तो द्वंद के कारण सृष्टि का विकास मानता है। वह धर्म अधर्म, आचार विचार, स्वर्ग नरक इत्यादि की चिन्ता नहीं करता। इसके लिये न तो सिख है,न तो इसाई, न तो मुस्लिम न तो हिन्दू।इन सभी का मूल्यांकन साहित्यकार जनहित मे उनकी उपयोगिता के अनुसार करने लगता है।

 

सभ्य सिष्ट और संस्कृत लगते मनको केवल कुत्सित

धर्म, नीति ओ, सदाचार का मुल्यंाकन है जनहित।

वह मानव को मानव के रूप मे देखना चाहता है। यदि अंधविश्वास और झूठी पतंपराऐं एसके रास्ते मे आती हैं; तो वह उनका ध्वंस करता हुआ आगे बढ जाता है।

 

अंग्रेजी शासनकाल ने हमारी आर्थिक उन्नति मे व्यवधान उपस्थित कर दिया। अंग्रजों की नीति हमेशा शोषण की रही थी, अंग्रजों के आने के पूर्व हमारे देश मे कुटीर उदयोंगों का प्रचलन था, अंग्रेजों ने इन्हे समाप्त कर देश की आर्थिक व्यवस्थता को और भी शोचनीय बना दिया। कुटीर उदयोगों को समाप्त कर नवीन ढंग से औदयोगिक व्यवस्था का निर्माण किया गया। इस समय कृषक वर्ग पर दमन और शोषण का कार्य चलता रहा। समाजवादी सिद्वांतों से प्रेरणा लेकर अखिल भारतीय किसान सभा का जन्म हुआ, मजदूरों और किसानो ने अपने अधिकारों के लिये जमकर संघर्ष किया। ग्रामीण क्षेत्रों मे निवास करने वाले किसानो और मजदूरों की स्थिति काफी दयनीय हो गयी थी, एक ओर वे जमीदारों और मालगुजारों की सामंतवादी सत्ता के शिकार हो रहे थे दूसरी ओर पूंजीवादी साहूकारों से उनकी कमर टूट रही थी। सन 1921 मे महात्मा गंाधी द्वारा चलाये गये विदेशी वस्तु बहिष्कार और स्वदेशी प्रचार का जो अंादोलन चलाया था उसका मूल उद्वेश्य भी भारतीय लघु और कुटीर उदयोंगों को पुनर्जीवित कर किसानो और मजदूर वर्ग की आर्थिक स्थिति को सुदृढ करना ही था। भारत मे पहली बार किसान और मजदूर एक ही कार्यक्रम मे भाग लेकर किसान मजदूर एकता कायम की।

 

राष्ट्रीय अंादोलन के प्रदर्शन से बहुत ही भारत मे संास्कृतिक नवजागरण का अंादोलन प्रारम्भ हो चुका था। भारत मे नवजागरण का आंदोलन सबसे पहले बंगाल मे प्रारम्भ हुआ, क्योंकि पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति एवं शिक्षा का प्रसार सबसे पहले बंगाल मे ही हुआ था। प्रगति की माक्र्सवादी धारणा ही प्रगतिवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि है। इस प्रकार भारत मे प्रगतिवाद के जन्म के समय जहंा एक ओर राजनीतिक स्वतंत्रता ओर आर्थिक समानता का आंदोलन दिनोदिन प्रबल हो रहा था, वहीं दूसरी ओर संास्कृतिक नवजागरण की धारा भी अधिकाधिक बलवती होती जा रही थी।

 

संदर्भ गृन्थ सूचीः-

01.    हिन्दी साहित्य का इतिहास डाॅ. नागेन्द्र, मयूर पेपरबैक्स ए-95,सेक्टर 05,नोएडा, चांैतीसवंा संस्करण-2007

02. काव्य कला एवं अन्य निबन्ध भारती भंडार, प्रयाग, चतुर्थ संस्करण 2010, पृ.क्र. 102

03. आधुनिक हिन्दी साहित्य राजपाल एण्ड सन्स. प्रथम संस्करण पृ.क्र. 25

04 प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य अवस्थी रेखा. राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ.क्र. 99

05. आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाॅं लोक भारती, इलाहाबाद,प्रथम संस्करण.1962, पृ.क्र. 91

06.    आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास हिन्दी परिषद, विश्वविद्यालय, प्रयाग, तृृतीय संस्करण, 1952, पृ.क्र.    84

07.    उपन्यास और लोक जीवन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1957, पृ.क्र. 81

 

 

Received on 25.07.2015       Modified on 19.08.2015

Accepted on 14.09.2015      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 3(3): July- Sept., 2015; Page 121-123