उत्तर छत्तीसगढ़ प्रदेष में आदिवासी अर्थव्यवस्था

(कोरवा जनजाति के सामाजिक, आर्थिक स्तर के अध्ययन के संदर्भ में)

 

डाॅ.संगीता षुक्ला1, डाॅ. षैलेश कुमार चैबे2

1सहा.प्राध्यापक भूगोल, षास.कन्या.स्वषासी.स्नातक.महाविद्यालय, बिलासपुर (..)

2व्याख्याता पंचायत, षास.कन्या.हाई.स्कूल, बैमा, बिलासपुर (.)

                               

 

ABSTRACT:

भारत में लगभग 1/5 भाग (19 प्रतिषत) क्षेत्र में 500 से अधिक आदिवासी समुदाय निवास करते है। प्रत्येक आदिवासी समुदाय की अपनी विषिश्ठ सांस्कृतिक धरोहर, बोली, उपबोली, एवं रस्मो - रिवाज है। यही विषिश्ठता प्रत्येक आदिवासी समुदाय की पहचान है।  छत्तीसगढ़ अंचल जनजाति बहुल प्रदेष है।  यहाॅं कुल जनंसख्या का 32 प्रतिषत आबादी जनजातियों का है, जो प्रदेष के उत्तरीय एवं दक्षिणी भाग के पहाड़ी वनाच्छादित क्षेत्र एवं दुर्गम अंचलों में निवास करती है।  पहाड़ी ’’कोरवा’’ उत्तर छत्तीसगढ़ प्रदेष में उत्तरीय -पष्चिमी एवं पूर्वी भाग में वनोच्छादित प्रदेष में स्वच्छ एवं प्रकृति प्रेमी के रूप में निवासरत है।  इनकी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक रिति-रिवाज है, इनका अर्थ व्यवस्था पूर्णतः वनों पर आधारित है। 

 

KEYWORDS : पहाड़ी कोरवा, अर्थ व्यवस्था, घूमन्तु कर्णछेद, आवासीय गृह।

 

 

आदिवासी प्राचीन समय से दुर्गम पठारी वनों से अच्छादित पहाड़ी भागों मे निवासरत् है इनके जीवकापार्जन और सुरक्षा के आधुनिकतम साधन नहीं होते हैं।  इनके अर्थ व्यवस्था पूर्णतः भौगोलिक परिस्थितियों और प्रकृति पर निर्भर रहती है।  ये अपनी विषिश्ठ संस्कृति, बोली एवं भौगोलिक परिस्थिति का सामना करते हुए जीविकापार्जन करते हैं।  इसी परिपेक्ष्य में यह षोध पत्र अध्ययन हेतु प्रस्तुत है। 

 

अध्ययन क्षेत्र:-

उत्तर छत्तीसगढ़ प्रदेष में कोरवा जनजाति उत्तर-पूर्वी आदिवासी क्षेत्र जषपुर, सरगुजा एवं कोरबा जिले में फैले हुए हैं।  उत्तर छत्तीसगढ़ प्रदेष की कुल जनंसख्या में 37 प्रतिषत भाग अनुसूचित जनजातियों का है।  बिलासपुर जिले का कुल जनसंख्या का 24 प्रतिषत, रायगढ़ जिले का 46 प्रतिषत एवं सरगुजा जिले का 53 प्रतिषत भाग जनसंख्या जनजातियों का है।  अध्ययन क्षेत्र में सर्वाधिक अनुसूचित जनसंख्या जषपुर जिले में 73 प्रतिषत है।  यहाॅं कोरवा जनजाति सर्वाधिक संख्या में पाई जाती है।

 

प्रस्तुत अध्ययन कोरवा जनजाति की अर्थव्यवस्था आर्थिक स्थिति के अध्ययन पर आधारित है। 

 

 

कोरवा जनजातीय का सामाजिक-सांस्कृतिक  एवं आर्थिक स्थिति:-

प्रस्तुत अध्ययन कोरवा जनजाति पर केन्द्रीत है।  छत्तीसगढ़ जनजाति बाहुल्य प्रदेष है।  प्रदेष की कुल जनसंख्या का 32 प्रतिषत आबादी जनजातियों का है, जो प्रदेष के 18 जिलो में निवास करती है।  वर्तमान में विभाजन द्वारा अब छत्तीसगढ़ में 27 जिले हैं।  राज्य में लगभग 42 जनजातीय समूह में निवास करता है।  प्रदेष की विभिन्न संस्कृति की झलक प्रदेष के विभिन्न दूरस्थ अंचलों तक फैले जनजातियों में स्पश्ट परिलक्षित होती है।  इनमें राज्य सुदूर पूर्वी अंचल के बीहड़ जंगलों, पहाड़ों तथा पठारों में बसा ’’कोरवा’’ जनजाति बरसो से ही अलग-थलग तथा विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त जीविका और अस्तीत्व के लिये संघर्शरत रहा है।

 

उत्पत्ति:-

कोरबा जनजाति के उत्पति के संबंध में ब्रिटानी प्रषासकों एवं विद्धानों के दो मत है - पहला कि ये जनजाति छोटा नागपुर जिले बरवाह कहा जाता है, में पाये जाने वाले जनजातियों के झुण्ड के उपसमुह है। दूसरा ये जनजाति मूल रूप से मुण्डई षाखा से संबंधित है डाल्टन ने लिखा है कि, कोरवा कोलेरियन श्रृंखला की एक कड़ी है, ये छाटा नागपुर के (बरवाह) के प्राचीनतम मूल निवासी असूरों के मिले जुले रूप हैं।  अंतर इतना है कि, कोरवा खेती कार्य करते हैं तथा असुर लोहा गलाने का कार्य करते हैं।  रसेल एवं हीरालाल ने भी कोरवा जनजाति को कोलेरियन समुह का माना है।

 

वितरण:-

वर्श 1881, 1891, 1911 तथा 1931 की जनगणना में इनका निवास क्षेत्र अथवा वितरण बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत तथा बरार एवं उत्तरपष्चिम प्रांत में यह जनजाति पाई जाती रही।  1991 की जनगणना में कोरवा जनजाति का वितरण अण्डमान निकोबार की द्वीप समुह, असम बंगाल तथा सेन्ट्रल ऐजेंसी के अनुसार मध्य प्रांत बरार के क्षेत्रों में निवास करता था। 

 

सिंह (2001) ने कोरवा जनजातीय के संबंध में लिखा है कि, वर्श 1981 की जनगणना में कोरवा मध्यप्रदेष के कोंडाकू (कोरकू), जनजाति को कोरवा जनजाति का ही विभाजित एक समूह कहा गया तथा इसका निवास स्थान सरगुजा, रायगढ़ (वर्तमान जषपुर) एवं बिलासपुर जिला था।  इनकी कोडाकू जनजाति सहित कुल जनसंख्या 15,340 थी।  यह समूह परिवार में छत्तीसगढ़ी, इण्डो आर्यन भाशा बोलती थी तो कही कही इनके द्वारा छत्तीसगढ़ी और हिन्दी भाशा भी बोली जाती थी।  मोहन्ती (2004) में अपने अध्ययन ने उल्लेख किया है कि कोलेरियन समूह की यह जनजाति छोटा नागपुर के पठार में निवासरत थे।  1911 में लगभग 34,000 कोरवा जनजाति मध्य प्रांत की ओर पुनः वापस गये, जिसमें अधिकतम जनसंख्या सरगुजा तथा जषपुर स्टेट में तथा कुछ बिलासपुर जिले में आकर बस गये।

 

तिवारी (1998) में अपने अध्ययन में कहा कि, कोरवा अपने मूल निवास क्षेत्र छोटा नागपुर-बरवाह से धीरे-धीरे चलकर एक लम्बी समयावधि में पष्चिम की ओर झरनों और घाटियों में होते हुये कन्हार नदी के दक्षिण में भूतपूर्व जषपुर स्टेट (वर्तमान जषपुर जिले का मनोरा तथा बगीचा विकासखंडों  के खुड़िया क्षेत्र में प्रतिस्थापित हुये है।  इसके बाद छोटे-छोटे समूह में सीमावर्ती सरगुजा क्षेत्र रीवा क्षेत्र में रहे हैं।  कूर जनजाति की उत्पति कोरवा से ही मानी जाती है।  पुनः आगे समय की गति से बढ़ते हुये विंध्य की पहाड़ियों से होते हुये उत्तरप्रदेष के दूरस्थ वन क्षेत्रों में एवं मिर्जापुर के पहाड़ी अंचलों में बस गये।

 

’’आई.सी.एस.आर.प्रेषर प्रोफाईल कोरवा आफ इंड़िया, 2006’’ अप्रकाषित प्राप्त तथियों में कोरवा जनजाति को देष की प्रमुख जनजातियों में से एक कहा गया है।  जो मध्यप्रदेष (वर्तमान में छत्तीसगढ़) बिहार तथा उत्तरप्रदेष के पहाड़ी, पठारी, भागों तथा जंगलों में निवास करती है।  ये मुण्डा भाशा बोलते है, जिन्हें कोरवा भी कहा जाता है।

 

छत्तीसगढ़ में कोरवा जनजाति की बसाहट:-

छत्तीसगढ़ में कोरवा जनजाति, उत्तरपूर्वी आदिवासी क्षेत्र जषपुर, सरगुजा एवं कोरबा जिले में पाये जाते हैं।  ऐतिहासिक लेखों से ज्ञात है कि, ये जनजाति छोटा नागपुर से पलायन कर पूर्वी खुड़िया जमीदारी (वर्तमान में बगीचा विकासखंड, सन्ना तथा मनोरा विकासखंड के सीमावर्ती भाग जो जषपुर जिला के अंतर्गत आती है।  इस क्षेत्र से यह जनजाति सरगुजा जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में पलायन कर गये, वही बस गये।  पुनः सरगुजा से कोरवा समूह क्रमिक रूप से पलामु की उंची पहाड़ी क्षेत्र तथा उत्तर प्रदेष के मिर्जापुर क्षेत्र के विध्याचल दूरस्थ क्षेत्रों की ओर पलायन कर गये।

 

छत्तीसगढ़ में यह जनजाति जषपुर के मनोरा बगीचा विकासखंड में तथा सरगुजा में उत्तरपष्चिम में सामरी तथा उत्तरपूर्व में अम्बिकापुर में विस्तृत है।  जनजाति का वृहद निवास जषपुर के पहाड़ी अंचल उत्तर पष्चिम से लेकर सरगुजा के सामरी के दक्षिण पष्चिम तथा उत्तरपूर्वी क्षेत्रों तक सर्वाधिक फैले हुय है।  सरगुजा के सामरी तहसील के षंकरगढ़ एवं कुसमी में बसाहट है।  जनसंख्या घनत्व की दृश्टि से लुण्ड्रा, राजपुर तथा जषपुर जिले में कोरवाओं की जनसंख्या अधिक फैली है।  कोरबा जिले में अपेक्षाकृत कम आबादी है। 

 

समाजिक, आर्थिक स्थिति:-

कोरवा जनजाति अपने कठोर स्वभाव के कारण पृथक रूप से, उंचे स्थानों एवं घने जंगलों तथा पठारों में निवास करते हैं  प्राचीनकाल से अति असभ्य होने वेबरा खेती करने के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान घुमन्तु जीवन व्यतीत करते है।  घुमन्तु प्रवृति के अनुरूप ही इनकी आवासीय संरचना होती है।  छोटी बस्तियां, टीलो, झोपड़ियाॅ ंतो कही दो चार समूह के रूप में पाये जाते है।  मकान घाॅंसफूस लकड़ी के होते हैं।  पूरी तरह लकड़ी के बत्तों से बना मकान का दीवार हाता है छत घाॅसफूस खपरैल का होता है। 

 

खेती करना जिसमें ’’क्यौरा’’ अथवा ’’दहिया’’ खेती कहा जाता है।  यह झूम खेती (स्थानांतरित कृशि) का ही स्वरूप है।   परम्परागत कुदाली फौड़ा, कुल्हाडी, गैता, हसिया, हल्फी लकड़ी के हल तक सीमित है।

 

आर्थिक दषा अत्यंत पिछड़ी है। इनका कृशि भूमि पठारी पहाड़ी ढलानों में होने के कारण उपजाउ नहीं पाया गया है।  कोरवा जनजाति का वनों से सहजीवी संबंध रहा है।  अर्थात ये भोजन, ईधन, लकड़ी घरेलू सामग्री, जड़ीबूटी, औशधि, पषुओं के लिये चारा, कृशि, औजार के लिये वनों वन्य जीवों पर तथा आचार विचार इत्यादि परम्परागत अथवा पिछड़ी हुई है।

 

धार्मिक संस्कारिक स्थिति:-

कोरवा जनजाति में धार्मिक संस्कारों का विषेश महत्व है।  इनके समाज में धार्मिक संस्कार कर्मकाण्ड की षुरूवात गर्भावस्था से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक चलती है।  जिनमें गर्भ पूजा, छठी, बरही, कर्णछेद, विवाह तथा मृत्यु संस्कार प्रमुख है।  कोरवा में पूर्वजों की मृत आत्मा में विष्वास किया जाता है, उनमें यह मान्यता है कि पूर्वजों की आत्मा घर में निवास करती है।  जिसे प्रसन्न करने के लिये आत्मका की पूजा की जाती है।  पितरों की पूजागरह देवताके रूप में किया जाता है। 

 

दैनिक जीवन में होने वाले समस्त क्रियाकर्मो जैसे बच्चे की छट्ठी, बरही, विवाह, तीज, त्यौहार, फसल की बुवाई, कराई इत्यादि अवसरों पर पितर, पूर्वजों की पूजा विषेश रूप से किया जाता है।  इनका विष्वास है कि पितर देवता के प्रसन्न होने से परिवार में सुख षांति, अच्छी फसल, अच्छा स्वास्थ्य रहता है।  प्रथम संस्कार असेरवार, संस्कार है।  गर्भधारण के समय यह मनाया जाता है।  बच्चे के जन्म पष्चात् दूसरा संस्कार छठी कहा जाता है।  घर षुद्धीकरण गृहदेव (कोण) की पूजा की जाती है।  तीसरा संस्कार बरही होती है।  इस दिन बच्चे का नामकरण किया जाता है।  संस्कार का अगला क्रम कर्णछेद होता है।  यह संस्कार जरूरी है नहीं होने पर विवाह में रूकावट आती है।  अगला संस्कार विवाह संस्कार है।  कोरवाओं में विवाह की आयु लड़के की 15-17 एवं लड़की की 12 से 14 वर्श की आयु में होता है।  इसमें घरजमाई विवाह, सगाई, विवाह, साली विवाह, प्रेम विवाह, उढ़ाषिया विवाह तथा ढुकु विवाह इत्यादि है।  संघवार (1990) में कोरवाओं में 07 प्रकार के विवाह का उल्लेख किया जाता है।  इसी प्रकार कोरवाओं में अंतिम संस्कार मृत्यु है।  जिसमें मृत्यु के 10वाॅं दिनदसमाका आयोजन कर मृत आत्मका को भोजन, षांति हेतु देवार, ओझाा से पूजा कराते हैं।

 

उपरोक्त सभी संस्कारो को कोरवाओ द्वारा नाते-रिष्तेदारो ,कुटुम्बो के साथ बड़े धूमधाम के साथ सम्पन्न किया जाता है। जिसमे छोटे बडे़ सभी परिवार के सदस्यो, पडोसियो के साथ सम्बंध रखते हुये कोरवा की जीवन मेे तीज त्यौहारो का विषेश महत्व होता है। कोरवाओ का जीवन कृशि तथा जंगलो के निरंतर संपर्क मे रहने के कारण तीज त्यौहार प्रकृति से गहरा संबंध रखते हैं।  सभी त्यौहार प्रकृति जन्य है।  कोरवाओं के मुख्य त्यौहारों में हरियाली कोहड़ा, नवा या नवारवानी, सरना, पूजा, करमा, सरहुल, सोहरई (अमास) छेरथा, फागुन, कणेरी एवं बीज-नोनी इत्यादि। 

 

त्यौहार के अवसर पर विभिन्न देवी देवताओं की पूजा की जाती है।  विषेश प्रकार का चढ़ावा तथा बली दी जाती है।  धरती माई को काली, मूर्गा, गुआरी माता को कबरी मुर्गी, ठाकुर देव को सफेद मुर्गी, गोरया देव को सुअर इत्यादि बली चढ़ाते हैं।  कोरवाओं की मान्यता एवं विष्वास हे कि देवी देवता किसी किसी प्रकार से समाज के लोगों के सहयोग करती है जैसे - धरती माइ्र, धन की देवी, अधिक फसल पाने के लिये, खुड़िया रानी जनकल्याण के लिये, ठाकुर देव महामाही से बचाव के लिये, दूल्हा देव रोगो से बचाव, सरना बढ़ी देवी, गाॅंव की रक्षक हेतु गोरपा देव, पालतु पषु हेतु, पितर देव- परिवार कल्याण हेतु इनकी पूजा करते हैं। 

 

अर्थव्यवस्था:-

अध्ययन क्षेत्र में पहाड़ी कोरवा जनजाति की अर्थव्यवस्था वनों पर आधारित है।  वनो पर आधारित अर्थव्यवस्था को तीन उपभागों में रखा गया है- 1. आखेट एवं भोजन संग्रहण, 2. पषु चारण एवं जलाउ लकड़ी का उपयोग, 3. वनो से प्राप्त संग्रहण।

कोरवा जनजाति द्वारा षिकार एवं भोजन संग्रहण:-

 

आखेट कोरवा जनजाति की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है, साधारणतः पहाड़ी कोरवा जनजाति षिकार करते हैं इस जनजाति में पुरूश वर्ग द्वारा आखेट कार्य किया जाता है।  ये लोग आखेट अपने सरल उपकरणों धनुश बाण एवं फांदा की सहायता से करते हैं इनमें आखेट स्वयं सामुहिक रूप से होता है।  सामुहिक आखेट में पषु-पक्षी के मांस आपस में बराबर बांटते हैं।  पहाड़ी कोरवा जंगली सुअर, खरगोष, वन बिलार, चुहा, बंदर, सभी प्रकार के पक्षियों का आखेट करते हैं। 

 

मत्स्य आखेट:-

इस जनजाति के लोग मतस्य आखेट भी करते है।  जो पूर्णतः वर्शा ऋतु में किया जाता है इनमें सभी स्त्री-पुरूश दोनों, बच्चे सभी मत्स्य से आखेट करते हैं।  मत्स्य से आखेट स्वतः निर्मित फांदा जैसे जाल, पेनला, चोरिया, बंषी आदि की सहायता से किया जाता है।  साथ ही साथ ये लोग छोटे-छोटे गढ्ठो में जहरीली घांरा (घास) को ढालकर भी मछली का आखेट करते हैं। 

 

भोजन संग्रहण:-

पहाड़ी कोरवा भोज्य पदार्थ के संग्रहण में आम, कटहल, महुआ, तेंदू, चार, इमली, जामून, बेल, कंदमूल, षहद, पत्तियां (भाजी) वनोपज पदार्थ का संग्रहण करते है।

 

सारणी क्रमांक-1    उत्तर छत्तीसगढ़ प्रदेश - कोरवा जनजाति के भोज्य संग्रह का विवरण

क्र.          भोज्य संग्रह          संग्रह अवधि         उपयोग अवधि     कुल भोज्य दिन

1             आम       मध्य अप्रैल से जून              मध्य अप्रैल से जुलाई          35

2             कटहल   मध्य जून से जुलाई             मध्य मार्च से जुलाई            15

3             महुआ     अप्रैल से मध्य जून              अप्रैल से जुलाई     40

4             तेदू          मध्य मार्च से अप्रैल             मध्य मार्च से अप्रैल             15

5             चार         मध्य माह से अप्रैल              मध्य मार्च से अप्रैल             22

6             इमली     मई से जून             मई से जुलाई         23

7             बेर          जनवरी से फरवरी जनवरी से जुलाई  33

8             गुलर       मई से जून             मई से जून             11

9             केम्प      मध्य माह से अप्रैल              मध्य मार्च से अप्रैल             7

10           जामुन    मई से जून             मई से जून             14

11           आवला   दिसंबर से जनवरी               दिसंबर से जनवरी               11

12           पीपल फल            मई से जून             मई से जून             8

13           शहद       जनवरी से जून      जनवरी से जून      7

14           कंदमूल   जुलाई से अगस्त  जुलाई से अगस्त  40

15           पत्तिया फूल           साल भर साल भर 230

16           पशु पक्षी, कीड़े      साल भर साल भर 109

17           मछली    वर्षा ऋतु, ग्रीष्म ऋुत          वर्षा ऋतु, ग्रीष्म ऋुत          33

 

निश्कर्श-

कोरवा जनजातियों में सामाजिक धार्मिक स्थिति एवं समस्याओं के अध्ययन से विदित है कि, इन जनजातियों का निवास स्थान दुर्गम पहाड़ी, पठारी सघन वनीय क्षेत्र होने के कारण विकास से कोसो दूर है।  समस्याओं के अंतर्गत इनमें जीविका साधनों का अभाव, रोजगार मिलना, कृशि भूमि का अभाव, आवास की समस्या, स्वास्थ्य की समस्या, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, पेयजल की कमी, षिक्षा का अभाव, यातायात मार्गो की असुविधा इत्यादि है।

 

यद्यपि विकास योजनाओं से उनके आर्थिक स्थिति में आंषिक परिवर्तन हुये है, तथापि अभी भी अधिकांष जनजातियों में रोजगार व्यवसाय के विकास में विकास योजनाएं प्रयासरत है।

 

संदर्भ सूची-

1.    गोले, उमा , 2011,‘‘कांकेर जिले के गोंड़ जनजातियों में जीवन की गुणवत्ता का स्तर’’ रिसर्च जर्नल आफ ह्यूमेनिटिज एण्ड सोषल साइंसेस, रायपुर, अंक-2, संख्या-2, अप्रैल-जून, 2011, पृ.सं.73-76

2.    चन्द्राकर पी.एल, 1994, मध्य प्रदेष में कोरवा जनजाति का आर्थिक, सामाजिक विष्लेशण एक भौगोलिक अध्ययन, अप्रकाषित षोध प्रबंध गुरूघासीदास विष्व विद्यालय बिलासपुर।

3.    वर्मा एस.सी ,1961, वन तथा आदिवासीवन जीवन षताब्दी (1860-1960), वर्श 4, अंक 5, मुख्य वन संरक्षक, मध्यप्रदेष षासन, भोपालपृ. 73

4.    षर्मा, आर.,1971, जनजाति और संस्कृति, किताबघर, कानपुर, पृ.98

5.    Tripathi, K.,1976, A Gographical Study of Oraon & Korwa Tribles in Raigarh Dist. (M.P.), Unpulished Ph.D. Thesis, Pt. Ravi Shankar University, Raipur.

6.    Tiwari, D.N., Premitive Tibes of M.P. State Gy for Devlopment, Ministry of Home Affairs and Tribals Devlopment, Govt. of India.

 

 

Received on 12.05.2016       Modified on 02.06.2016

Accepted on 24.06.2016      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 4(3): July- Sept., 2016; Page 135-138