मध्यकालीन बुन्देली चित्रकला
रघु यादव
शोध छात्र (इतिहास) वीरबहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, (उ०प्र०)
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ABSTRACT:
मानव वनों में रहते हुये फल मांस खाता था और वहीँ पशुओं के रहने के कारण उनके क्रियाकलापों को देखते हुये उनके समान ही आचरण भी करता था। मानव का पशु पक्षियों से मेल व बैर भाव होने के कारण शांतए करुणए रौद्रए वीभत्स रसों के दृश्य भी देखे जाते थे। मानव इन दृश्यों को लाल पत्थर से चट्टानोंए गुफाओं में बनाया करता था। ऐसे हजारों वर्ष पूर्व के शैलचित्र आज भी पाए जाते हैं जिनसे तत्कालीन वातावरण और क्रियाकलापों का ज्ञान होता है। धीरे&धीरे मानव में बुद्धि का विकास हुआ और उसने चित्रों को आकर्षक और लम्बे समय तक बनाये रखने के उद्देश्य से रंगों का निर्माण किया। पृथक&पृथक कालखण्डों में चित्रों के वर्ण्य विषय भी परिवर्तित होते गये। इतिहास के काल विभाजन के अनुसार बुंदेला राजा रूद्र प्रताप द्वारा सन् 1531 में ओरछा राज्य स्थापना के बाद मध्यकालीन इतिहास कहा जाता है।
KEYWORDS:
izLrkouk
दो रंगों के मिश्रण से अन्य रंग बनाया जाता था आइन&ए&अकबरी में रंग बनाने का उल्लेख किया गया है।
जब अधिक सफेद रंग कुछ काले रंग से मिलता हैए पीला रंग उत्पन्न होता है। परन्तु जब सफेद रंग और काला रंग समान अंशों में मिश्रित होता है तो लाल रंग प्रकट होता है। मिश्रण के समय यदि काला रंग सफेद से अधिक परिणाम में होता हैए तो नया रंग हरा बन जाता है।
अन्य रंग इन्हीं रंगों के एक दूसरे के साथ मिलने पर उत्पन्न होते हैं।1
इन रंगों का निर्माण कई सौ वर्षो में कई प्रयोग करने के बाद हो सका होगा। यह स्वाभाविक बात है जब राजा समस्याओं से घिरा होता है तब उसे आमोदए प्रमोद अच्छा नहीं लगता हैए वह जब बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित या सामना करने में सक्षम होता हैए तब वह निश्चिंत अवस्था में विविध कलाओं का आनन्द लेता है। इसी क्रम में अपने गौरवशाली क्रियाकलापों का चित्रांकन कराता हैए ताकि बाद के लिखे जाने वाले इतिहास में सम्मानीय उल्लेख किया जा सके और लोग उसके व्यक्तित्व से परिचित हो सकें। बुंदेला राज्य स्थापित होने के कारण यह क्षेत्र बुन्देलखण्ड कहलाया। यद्यपि प्राचीन लोक देवताए लोक व्रत को रुपायितरू करता हुआ लोक चित्रण प्राचीन परम्पराओं का परिचय कराता है। इस लोक चित्रकला के लिए किसी अभ्यास प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि लोक चित्रकला में कलात्मक की अपेक्षा वर्ण्य विषय के सम्प्रेषण को प्राथमिकता दी जाती है। चित्रकला की विशेषता अन्य कलाओं में श्रेष्ठ बताई गयी है ।
यथा सुमेर: प्रवरो नागानां यथाण्ड जानां गरुण: प्रधान: ।
यथा नराणां प्रवर: क्षितीशस्तथा कला नामिह चित्रकल्प :।।2
आशय यह है कि पर्वतों में सुमेरुए पक्षियों में गरुणए नरों में राजा जिस प्रकार श्रेष्ठ है। उसी प्रकार कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है।
यद्यपि अपवाद के रूप में अन्य श्लोक भी मिल जायेंगे जिसमें किसी अन्य कला को श्रेष्ठ बताया गया होए किन्तु यह निश्चित है कि चित्रकला अभिलेखीय साक्ष्य का कार्य करती है। कम समय व कम स्थान पर अच्छा प्रदर्शन किया जा सकता है इसीलिए ओरछा में लक्ष्मीनारायण मंदिर में कम स्थान पर रामलीला का चित्रांकन किया गया है। सन् 1605 ई० में जहाँगीर के कृपा पात्र वीर सिंह देव प्रथम ने ओरछा का शासन संभाला ये विडम्बना ही है कि चन्देल राजवंश के अंतिम शासक कीर्ति सिंह की पुत्री चित्रकार दुर्गावती के बाद चित्रकला के निर्माण में अन्तराल आया तब वीर सिंह देव प्रथम ने ओरछा के महलों में चित्रांकन करायाए किन्तु मुख्यतः चित्रकला का आरम्भ महाराजा मधुकर शाह ¼सन् 1554&1592½ के काल में हुआ। चित्रों की सुघड़ताए सौष्ठव के बारें में डॉ० महेन्द्र वर्मा लिखते हैंA
ये समस्त चित्र इन महलों की चतुर्दिक भित्तियों पर निर्मित हैं। चित्रों में पर्याप्त रूप से मौलिकता है एवं स्वाभाविक तथा उपयुक्त वातावरण से परिपूर्ण है।3
ओरछा में राज दरबार महल की दीवारों में बने चित्रों में प्रकृति चित्रण राजाओं के चित्र हैए राजा द्वारा आखेट करते हुयेए पशु पक्षियों के युद्ध व सुन्दर वेलबूटों का चित्रांकन किया गया है। धुँआ लगने पर ये चित्र काले पड़ते जा रहे हैंए अब उन चित्रों की भव्यता का आभास ही किया जा सकता है। चित्रांकन के आधार के लिए केशव की रसिक प्रिया के छन्द भी रहे हैं। फूलए पत्तियोंए वेलों का परस्पर स्पर्श करता हुआ चित्रांकन नारी पुरुष की आकृतियों का आभास कराता है। रानी महल से विख्यात दुर्ग में अधिक चित्रांकन है। यद्यपि बुन्देला कहलाने के पूर्व इनके पूर्वज काशी के गहरवार थे। गहरवार वंश सूर्यवंशी अयोध्या के राम के वंशज हैं । अतः इस वंश में राम को अधिक पूजा गया है। राम से संबंधित कथानक का चित्रांकन किया गया है राम के पुत्र कुश की गहरवार शाखा है दीवान प्रतिपाल सिंह लिखते हैं ।
१। रामचंद्र
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२। कुस ¼कुस स्थली½
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३। एक कुमार कासी पुरजन ने इसे कासी का राजा बनाया।
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४। राजा वीरभद्र
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५। राजा वीर
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६। कारन नृपति दानीए काशी में कर्ण तीर्थ बनाया।
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७। अर्जुनपाल पिता से रूठकर कासी छोड़ महौनी को राजधानी बनाया।
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८। सोहन पाल ¼कुंडार½4
वीर सिंह देव प्रथम की पत्नी गणेश कुंवरि अयोध्या से श्रीराम की मूर्ति पुष्य नक्षत्र में ही पैदल अयोध्या से ओरछा लाईं थी।
जहाँगीर महल के पीछे ओरछा की राजनर्तकी रायप्रवीण का महल बना है। महल की दीवारों पर भी चित्र बने हैं किन्तु इसमें कला सौष्ठव नहीं दिखाई देताए जबकि वीर सिंह देव प्रथम के शासन काल में दुर्ग में बनाये गए चित्र अधिक आकर्षक हैं। ओरछा में परवर्ती राजाओं पृथ्वी सिंहए छत्रसाल आदि राजाओं के शासनकाल में भी चित्र बने हैं। दतिया संग्रहालय में व्यक्ति चित्र विशेष आकर्षक हैं। शत्रुजीत ¼सन् 1762-1801½ प्रसिद्ध काव्यों का चित्रांकन कराने में रूचि रखते थे। कवि मतिराम के रसराजए बिहारी सतसई का चित्रांकन कराया गया। देव के अष्टछाप कवियों के चित्र और धार्मिक चित्र भी बनवाये गये। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर का शासनकाल कला के विकास की दृष्टि से स्वर्ण युग कहा जाता है। ग्वालियर के संग्रहालय में छोटे चित्रों के साथ साथ बड़े चित्र भी रखे हुये हैं जिनमें मुगल और राजस्थानी शैली की झलक दिखाई देती है। रंगों में तेल मिलाकर बनाये गये चित्र तैल चित्र कहलाते हैं। बुन्देला कालीन चित्रकला बनाने में रंगों के निर्माण करने का उल्लेख मिलता है।
उसके रंग भी खुद के तैयार किये होते हैं। वह गेरूए रामरजए नीलए सिंदूरए ईंगुरए प्योरी आदि का ही इस्तेमाल करता हैं। सफेदा को रंगों में प्रमुखता दी जाती है।5
यह बिडम्बना है कि चित्रकारए मूर्तिकार का नाम उनकी कलाकृति में नहीं रहता था कुछ कलाकृतियाँ अपवाद के रूप में हो सकती हैं। जिनमें कलाकार का नाम मिल जाय। जब किसी कलाकार को विशेष रूप से पुरस्कृत किये जाने पर कोई अभिलेख निर्गत होता था तो उसमें कलाकार का उल्लेख किया जाता था। चित्रों को गहन दृष्टि से देखने पर तत्कालीन वस्त्राभूषणए केश विन्यास और सामाजिक स्थितिए प्रवत्ति का ज्ञान होता है। ओरछा के कार्यवाहक राजा इन्द्रजीत सिंह ¼सन् 1608&1612 ई०½ ने राजा रामशाह के शासनकाल में कवि केशवदास की रसिक प्रिया के चित्रांकन में श्रृंगारए सजीवता और सौन्दर्य का समावेश है। दुर्ग के ऊपरी खण्ड के कक्षों में जल बिहार स्त्रियों का चौगान खेल और बुन्देली वेशभूषा धारण किये युवतियों के चित्र तत्कालीन परिवेश को दर्शाते हैं। हाथी पर आरूढ़ राजा कृष्णए गोपियाँए राज&दरबार इत्यादि चित्रों में कलाकारों ने अपनी कला का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। राजाओं ने अपने अपने काल में चित्र बनवाये हैं अतः उस समय की वस्तु स्थिति का भी ज्ञान होता है।
चित्र लिपि में भी शिलालेख प्राप्त हुये हैं चन्देल कालीन संस्कृत शिलालेख अधिकांश चित्रलिपि में उत्कीर्ण किये गये हैं। घुमावदार अक्षरों को इस प्रकार मिलाया गया है कि पहली दृष्टि में लिपिए चित्र के सामान दिखाई देती है। मध्यकालीन बुन्देली कला बुन्देली लोक कलाओं में परिलक्षित होती है। बुन्देलखण्ड में गौड़ पुलिन्द् जातियाँ भी रही हैं अतः बुन्देलखण्ड की स्थापना होने पर इस क्षेत्र की प्राचीन संस्कृतियों का समावेश भी बुन्देलखण्ड की संस्कृति में हुआ है। इसी काल में लोक देवता गौड़ बाबाए कारस देवए हरदौल आदि की पूजा हुई हैए इसके साथ ही विविध लोकपर्व गनगौरए कुनघुसी पूर्नो इत्यादि रेखांकित हुये हैं। पूजन में माड़ने और पाटे चित्रकला में लोकचित्रकला मुखरित है। माड़ने देवी.देवता के स्थापना पट का आधार चौक माड़ने कहलाता है। आशय यह है कि पहले चौक सूखे आटा या गेरू से बनाकर उस पर लकड़ी का पट रखा जाता है जिस पर वस्त्र बिछाकर देवी&देवता की मूर्ति रखी जाती है। जब कोई अभिलाषा पूरी हो जाती है तो भक्त अपने संकल्प के अनुसार अभीष्ट देवी&देवता के स्थापन स्थल पर जाकर पाटे भरे जाते है। पाटे देवी&देवताओं के अलग अलग होते हैं। उदाहरणतः कालका जू के पाटों में शनिवार को दीवार पर सिन्दूर से छः देवी आकृतियाँ बनाई जाती हैंए बीच में गणेश जी बनाये जाते हैं और गणेश जी के ऊपरी भाग में एक ओर सूर्य दूसरी ओर चन्द्र बनाया जाता है। सम्पूर्ण आलेखन के चारों और अलंकृत किनारी बनायी जाती है।
मध्य बुन्देली युग में भक्ति आन्दोलन में सभी लोक विधायों में राम और कृष्ण को महत्त्व दिया जाने लगा था। नर्मदा प्रसाद गुप्त लिखते है
तुलसी की ष्रामचरितमानसष् ने राम को लोक देवता बना दिया था। इसलिए रामनवमी लोकोत्सव सहज स्वाभाविक था। इस क्षेत्र में कृष्ण भक्ति का उदभव और भी पहले हो चुका थाए परन्तु उसकी लोकप्रियता पन्द्रहवीं&सोलहवीं शदी में ही हुई।6
श्रीमद् भागवत कथा सुनने के कारण कृष्ण की लीलाओं की चर्चा जन सामान्य में होने से उनके चित्रांकन को बहुत महत्व दिया गया। बुन्देला कालीन चित्र कागज कपड़े और शीशे में भी बनाये गये हैंए जब बुन्देला राजा या रानी का निधन होता था तो उनके अन्त्येष्टि स्थल पर मंदिर के आकार के स्मारक बनवाये गये जिन्हे छतरियाँ कहा जाता है। टीकमगढ़ में खेल के विशाल मैदान के सामने कई छतरियाँ बनी हैंए जिसमें एक बड़ी छतरी के अन्दर दीवार पर पंक्ति से लगभग 18x12 वर्ग इंच में बने चित्र क्रमशः दीवार और शीश पर बनाये गये हैंए जिनमें बहुत गहन दृष्टि से देखने पर अन्तर पता चलता है। मध्यकालीन बुन्देला काल में चित्रकला और लोक चित्रकला दोनों ही पल्लवित हुईं हैं।
सन्दर्भ संकेत
1. आइन&ए&अकबरी&अनुवादक&राम लाल पाण्डेय&पृष्ठ 228
2. बुन्देली लोक चित्रकला&संध्या पुरवारए हरी मोहन पुरवार&पृष्ठ 11
3. बुन्देलखण्ड समग्र&संपादक&हरि विष्णु अवस्थी&पृष्ठ 151
4. बुन्देलखण्ड का इतिहास भाग 7&लेखक&दीवान प्रतिपाल सिंह&पृष्ठ 19
5. बुन्देलखण्ड दर्शन “अशान्त”&मोतीलाल त्रिपाठी& पृष्ठ 270
6. बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास& संपादक&डॉ० नर्मदा प्रसाद गुप्त&पृष्ठ&353
Received on 15.12.2020 Modified on 25.12.2020
Accepted on 30.12.2020 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Ad. Social Sciences. 2020; 8(4):215-218.